गण-तंत्र दिवस का माखौल उड़ाने की किसी को इजाजत नहीं

देश 74वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। सीधे-सरल शब्दों में गणतंत्र की व्याख्या करें तो गण का मतलब होता है जनता और तंत्र एक प्रणाली है, यानी एक ऐसा देश जहां शासनतंत्र में सैद्धांतिक रूप से देश के सर्वोच्च पद पर आम जनता में से कोई भी व्यक्ति पदासीन हो सकता है। इस तरह के शासनतंत्र को गणतंत्र (गण: पूरी जनता, तंत्र: प्रणाली; जनता द्वारा नियंत्रित प्रणाली) कहा जाता है। लेकिन आज मुल्क की सियासत एक ऐसे मोड़ पर है जहां सत्ता हथियाने के लिए किसी भी पार्टी को गण (जनता) की चिंता नहीं रहती। वह तो किसी भी कीमत पर शासन-सत्ता की बागडोर अपने हाथ में रखना चाहता है और तंत्र प्रणाली को अपने हिसाब से चलाने में यकीन रखता है।
सत्ता किसी भी कीमत पर हथियाना आज के समय में किसी भी पार्टी या दल का पहला एजेंडा होता है। उसे नियम-कानून और नैतिकता से कोई मलतब नहीं होता। वह सत्ता में क्यों बना रहना चाहता है? सत्ता की बागडोर पाने के बाद जनता का कितना भला करेगा, इससे उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता-सरोकार नहीं होता। उसका एक ही मकसद होता है कि वह एक बार चुनाव जीत जाए और एमपी-एमएलए बन जाए, उसके बाद तो सरकार उसकी पार्टी और उसकी होगी। इसके लिए वह जनता को दिन में भी सपने दिखाने से बाज नहीं आता। जिस गणतंत्र की इस देश ने कल्पना की थी, बापू ने खून-पसीने से सींचा था, सुभाष की एक आवाज पर लाखों लोग बलिदान हो गए, आजाद, भगत सिंह और सुखदेव हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए, उसका इन सियासतबाजों के दिल में कोई स्थान नहीं। इनका एक ही धर्म-ईमान है— सत्ता!
सत्ता हथियाते ही सभी सरकारी मिशीनरी इनके इशारों पर दौड़ने लगती है, उनका दुरुपयोग किया जाता है। गणतंत्र चीखता रहता है, चिल्लाता रहता है, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर फर्क पड़ता तो आज 74 साल बाद भी इस देश में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। पहलवान होते हुए भी बेटियों की इज्जत-आबरू का माखौल उड़ाया जाता है। नवजवान सड़कों पर भटकता है। बेकारी, बेरोजगारी, बदहाली के दलदल में लाखों-करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़े की तरह बिलबिलाते रहते हैं। सबकुद ऑनलाइन होते हुए भी भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ है। आज भी गरीबों और मजलूमों को अपना हक पाने के लिए मुकदमे लड़ने पड़ते हैं। रिश्वत देनी पड़ती है। जीते जी न जाने कितने लोगों को कागजों में मार दिया जाता है। उन्हें जीवत होते हुए भी जिन्दा रहेने का सबूत देना पड़ता है। उम्र खत्म हो जाती है लेकिन मुकदमों का निपटारा नहीं होता। क्या इसी को गणतंत्र कहते हैं?

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